रविवार, 18 फ़रवरी 2024

भारत की राज-व्यवस्था

- भारत के संविधान को बनने में 2 वर्ष 11 माह और 18 दिन लगे थे।

-1600 ईस्वी में ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत में आगमन हुआ।

- महारानी एलिजाबेथ प्रथम द्वारा ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारत में व्यापार का एकाधिकार दिया गया।

-1600 से 1858 तक कंपनी का शासन

-1858 से 1947 तक ताज का शासन

-रेगुलेटिंग एक्ट 1773-

इसके तहत कंपनी को रेलुलेट किया गया, भ्रष्टाचार की वजह से। इसके तहत कंपनी के कार्यों के नियंत्रित किया गया।कंपनी के कर्मचारियों पर रिश्वत लेने पर रोक लगाया गया। इसके तरहत कंपनी के प्रशासनिक और राजनीतिक कार्यों को मान्यता दी गई।

इसके तहत गवर्नर पद का नाम बदलकर बंगाल का गवर्नर जनरल कर दिया गया।

बंगाल के पहले गवर्नर जनरल थे वॉरेन हेस्टिंग

इस एक्ट के तहत कलकत्ता में उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गई। इसमें एक चीफ़ जस्टिस और तीन जज थे। पहले मुख्य न्यायाधीश इलिजा इम्पे थे।


-1784 का पिट्स इंडिया एक्ट

इसको 1773 के रेगुलेटिंग एक्ट की कमियों को दूर करने के लिए लाया गया था। यह 1781 में पारित किया गया था, लागू 1784 में हुआ।

इसके एक्ट ऑफ़ सैटलमेंट भी कहा गया था।

इस एक्ट के तहत कंपनी के राजनीतिक और व्यापारिक कार्यों को अलग किया गया। राजनीतिक कार्यों को देखने के लिए बोर्ड ऑफ़ कंट्रोल बनाया गया और व्यापारिक कार्यों को देखने के लिए निदेशक मंडल का गठन किया गया।

इस एक्ट के तहत द्वैध शासन पद्वति की शुरुआत होती है। 

पिट्स इंडिया एक्ट नाम ब्रिटेन के तत्कालीन युवा प्रधानमंत्री विलियम पिट के नाम पर रखा गया।

-1793 का चार्टर एक्ट

इस एक्ट के तहत व्यापारिक एकाधिकार को 20 वर्षों के लिए बढ़ा दिया

-1813 का चार्टर एक्ट

कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया, यानि भारतीय व्यापार को सभी ब्रिटिश के लिए खोल दिया गया। लेकिन चाय और चीनी के व्यापार का एकाधिकार अब भी कंपनी के पास था।

इस एक्ट के तहत ईसाई मिशनरियों को भारत आकर लोगों को प्रबुद्ध करने की अनुमति प्रदान की।

इसके तहत भारत के ब्रिटिश इलाक़ों के बाशिंदों के बीच पश्चिमी शिक्षा के प्रचार-प्रसार की व्यवस्था की।

इसके तहत भारत के स्थानीय सरकारों को व्यक्तियों पर कर लगाने के लिए अधिकृत किया।कर भुगतान नहीं करने पर दंड का भी प्रावधान किया।


-1833 का चार्टर एक्ट

इस एक्ट के तहत चाय और चीनी के व्यापार के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया

बंगाल के गवर्नर जनरल को पूरे भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया। भारत के पहले गवर्नर जनरल थे लॉर्ड विलियम बेंटिक

इस अधिनियन के तहत ईस्ट इंडिया कंपनी प्रशासनिक कंपनी बन गई थी। 

सिविल सर्विस के लिए खुली प्रतियोगिता का प्रावधान किया गया। लेकिन ब्रिटिश अधिकारियों के विरोध की वजह से लागू नहीं किया गया था। 

चार्टर अधिनियम 1853

इसकी अन्तिम चार्टर एक्ट भी कहा जाता है।
ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किए गए चार्टर अधिनियम उसकी श्रृंखला का यह अंतिम अधिनियम था।

भारत शासन अधिनियम 1858
1858 की क्रान्ति के पश्चात ब्रिटिश क्राउन ने भारत का शासन कपंनी के हाथों से लिया और भारत के शासन को अच्छा बनाने वाले अधिनियम के नाम से 1858 का भारत शासन अधिनियम लाया
इसके तहत भारत ब्रिटिश क्राउन के अन्तर्गत आ गया।
इसके तहत वायसराय का पद बनाया,मतलब ब्रिटिश रानी का निजी प्रतिनिधि। भारत का गवर्नर जनरल को भारत का वायसराय बनाया
पहला वायसराय था लार्ड कनिंग
इसके तहत भारत सचिव का पद बना।इसके साथ 15 सदस्यों का परिषद था।

भारत शासन अधिनियम 1861
इसके तहत विभागीय प्रणाली शुरू हो गई थी।
इसके तहत भारतीयों का प्रतिनिधित्व स्वीकार किया गया, गैर-सरकारी सदस्यों को रूप में।
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मंगलवार, 26 जनवरी 2021

किसानों के ज़िद से भारत की बदनामी।

 #RepublicDay2021 के दिन #TractorMarchDelhi में किसान नेताओं के द्वारा किए वादे के साथ मर्यादा टूटने के बाद कुछ मासूम और भोले-भाले लोग इस तरह की मूर्खतापूर्ण बातें कर रहे हैं -

Delhi Police ये बात 25 जनवरी की शाम को ही किसान नेताओं से मीटिंग के बाद साफ़ कर दी थी कि #tractorParade में हिंसा के संकेत मिले रहे हैं, लेकिन शान्ति पूर्ण ट्रैक्टर मार्च हो इसकी पूरी कोशिश रहेगी। चलिए यहां पर मान लेते हैं कि दिल्ली पुलिस फ़ेल रही। 

शान्ति पूर्ण ट्रैक्टर मार्च का किसान नेताओं का भी दावा था। उनकी तैयारी यहाँ तक थी कि सभी रूटों पर ट्रैक्टरों पर निगरानी रखने के लिए  अपने लोगों की तैनाती की थी। आसान भाषा में कहें तो दिल्ली ट्रैफ़िक पुलिस जैसी ही अपने ट्रैफ़िक कर्मियों की तैनाती की थी। यह ठीक वैसी ही बात है जैसे सरकार से बातचीत में अपना खाना ले जाते थे, सरकार से कोई मतलब नहीं है।

अब आते हैं मासूम और भोले-भाले लोगों की बातों पर। उपद्रवी किसानों द्वारा लाल क़िले पर धार्मिक झंडा फहराने का बचाव बड़ी चालाकी से  पुरानी घटनाओं से कर रहे हैं। जैसे Bharatiya Janata Party (BJP) के नेता और उसके समर्थक हर बात को अपमान से जोड़ देते हैं, ठीक उसी तरह का काम ये मासूम और भोले-भाले लोग कर रहे हैं। बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय मस्जिद के गुंबद पर और उदयपुर में कोर्ट के मुख्य द्वार पर भगवा झंडा लगाने का उदाहरण देकर पूछ रहे हैं कि एक सही और एक ग़लत कैसे हो सकता है? या तो दोनों ग़लत है या दोनों सही है? मतलब विरोध में ग़लत को सीधे ग़लत कहने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहे हैं।  

कुछ लोग कह रहे हैं कि पर्याप्त संख्या में पुलिस की तैनाती नहीं थी। क्या ऐसा संभव है कि हर व्यक्ति पर एक पुलिस की तैनाती की जाए?

किसान आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले किसान नेता अब इस बात को स्वीकार लें कि वो एक नाकाम नेतृत्वकर्ता हैं। उनके ज़िद/गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टरी रैली निकालने की तमन्ना की वजह से उनके नेतृत्व में गणतंत्र दिवस के दिन दुनिया भर में भारत की बदनामी हुई है।

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

केन्द्र में मज़बूत बीजेपी, बिहार में मजबूर क्यूँ?

बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए में सीटों का बंटवारा हो चुका है। बड़े भाई की भूमिका में रहने वाले जेडीयू के ख़ाते में कुल 122 सीटें मिलीं हैं,जिसमें से 7 सीटों पर जीतन राम मांझी की पार्टी चुनाव लड़ेगी। वहीं बीजेपी के ख़ाते में 121 सीटें हैं जिसमें से मुकेश साहनी की पार्टी 'वीआईपी' 11 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। कुल मिलाकर बिहार में एनडीए में दलों की संख्या चार है।
सीट बंटवारे के ऐलान के बाद बीजेपी का पूरा फ़ोकस इस बात पर रहा कि बिहार में एनडीए का चेहरा नीतीश कुमार ही होंगे और कोई नहीं, सीटें चाहे जितनी भी आए, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही होंगे। प्रेस कॉन्फ़्रेंस में उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा कि "मीडिया के बंधुओं से भी अनुरोध है कि किसी भी तरह के भ्रम में न पड़े। कहीं कोई कंफ़्यूजन, इफ़ या बट नहीं है। नीतीश कुमार जी ही एनडीए के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। सुशील मोदी ने लोजपा अध्यक्ष चिराग़ पासवान के फ़ैसले पर तंज़ कसते हुए कहा कि श्री नीतीश कुमार जी ही एनडीए के सर्वमान्य नेता हैं। और जो उनको नेता मानेगा, वही एनडीए में रहेगा। हाल ही मोदी सरकार में केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया है।
बिहार बीजेपी के अध्यक्ष डॉक्टर संजय जयसवाल ने कहा कि "मैं फिर से एक बार दोहराना चाहता हूं कि बिहार में नीतीश कुमार जी ही एनडीए गठबंधन के सीएम पद के उम्मीदवार हैं। हम एक बार फिर 2010 का इतिहास दोहराने जा रहे हैं और तीन-चौथाई बहुमत के साथ जीत कर आएंगे।
बीते मंगलवार को बिहार बीजेपी के इन दो बड़े नेताओं के बयान के बाद मेरे ज़हन में दो सवाल आए। पहला सवाल- बीजेपी, जो ख़ुद को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी मानती है, आख़िर वो बिहार में जेडीयू के नेतृत्व में चुनाव क्यूँ लड़ना चाहती है? दूसरा सवाल- आख़िर वो कौन सी मजबूरी कि राष्ट्रीय स्तर पर NDA का नेतृत्व में करने वाली बीजेपी, बिहार में जेडीयू के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही है? इस दोनों सवालों का जवाब इलेक्शन कमीशन की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारियों से मिलता है। बीजेपी और जेडीयू के बीच लोकसभा और विधानसभा चुनावों को लेकर तुलनात्मक अध्यन्न करें तो मालूम चलता है कि बीजेपी से ज़्यादा पॉप्यूलर जेडीयू है या यूँ कहें कि बिहार में बीजेपी से ज़्यादा जेडीयू पर लोगों का भरोसा है। मैं पिछले चार लोकसभा चुनावों में बीजेपी और जेडीयू की विजेता सीटों का आंकड़ें को इकट्ठा किया, उसमें से मैंने पाया कि साल 2014 का आम चुनाव छोड़ दें तो बीजेपी हमेशा जेडीयू से पिछे रही,या मामूली अन्तर से जेडीयू पीछे रही है। साल 2014 का वो चुनाव जिसमें हिन्दुस्तान को बताया गया था कि सिर्फ़ मोदी ही है जो सब कुछ बदल सकते हैं उसके अलावा कोई नहीं। इसी वज्ह से बिहार के लोगों ने भी 30 सीटों में से 22 सीटें बीजेपी के ख़ाते में डाले थे और जेडीयू 38 में से मात्र 2 सीटें जीत सकी। साल 2019 में बीजेपी को जहां 17 सीटें मिलीं, वहीं दूसरी तरफ़ जेडीयू को 14 सीटें मिलीं। ये हाल तब है जब नरेन्द्र मोदी दूसरी बार पीएम बने। साल 2004 में बीजेपी को 5 तो, जेडीयू को 6 सीटें मिली थी। अगर साल 2009 के चुनाव की बात करें तो जेडीयू को कुल 20 सीटें तो वहीं बीजेपी को मात्र 13 सीटों से संतोष करना पड़ा था। बीते बीस साल के इन आंकड़ों के आधार पर देखें तो अब भी बिहार बीजेपी में राजकीय स्तर पर एक भी ऐसा चेहरा नहीं जो प्रभावशाली हो, बीजेपी को लीड करने की क्षमता हो।
अब अगर बात विधानसभा चुनावों की करें तो साल 2015 के चुनाव में जेडीयू और बीजेपी एक-दूसरे के ख़िलाफ़ चुनाव लड़े थे, जिसमें मोदी लहर के बावजूद विधानसभा चुनाव में बिहार के लोगों ने बीजेपी से ज़्यादा जेडीयू में लोगों ने भरोसा दिखाया था। वो दौर ऐसा था कि एक के बाद एक बीजेपी राज्य दर राज्य चुनाव जीतते जा रही थी। साल 2015 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को मात्र 53 सीटें और जेडीयू को 71 सीटें मिली थी। साल 2005 के विधानसभा चुनाव में एक ही साल में दो बार चुनाव हुए उसमें भी बीजेपी को दूसरी बार भी जेडीयू से कम सीटें मिली। बिहार के लोगों ने जेडीयू को 88 सीटों पर विजेता बनाया तो वहीं बीजेपी 55 सीटें ही हासिल कर पाई। अब ज़िक्र साल 2010 के विस चुनाव का करते हैं, जिसके बारे में मंगलवार को हुई NDA की पीसी में बिहार बीजेपी अध्यक्ष संजय जयसवाल ने की थी। डॉ.जयसवाल ने कहा था कि हम एक बार फिर 2010 का इतिहास दोहराने जा रहे हैं और तीन-चौथाई बहुमत के साथ जीत कर आएंगे। साल 2010 मे बीजेपी-जेडीयू को क्रमश: 115 और 91 सीटें मिली थी। डॉ.जयसवाल शायद यह बात कहते हुए भूल गए थे कि वो साल दूसरा था ये साल दूसरा है। साथ में भारतीय राजनीति में एंटी इनकम्बेंसी नाम की कोई चीज़ होती है। भले ही सीएम नीतीश कुमार इस बात को न स्वीकार करें, लेकिन लॉकडाउन के दौरान दूसरे राज्यों में फंसें बिहारियों में नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ काफ़ी नाराज़गी है। बीजेपी ने ऐसा कौन सा काम किया जिससे लोगों की नाराज़गी कम हो सके? आंकड़ें इस बात की साफ़-साफ़ गवाही दे रहें हैं कि आख़िर बिहार में बीजेपी क्यूँ मजबूर है। बिहार बीजेपी में फ़िलहाल ऐसा कोई नेता नहीं मालूम पड़ता है जो चेहरा बन सके। एक नेता हैं सुशील कुमार मोदी, जिनकों सिर्फ़ इतने में ही ख़ुशी मिलती है कि डिप्टी सीएम वाली उनकी कुर्सी बरक़रार रहे।

मंगलवार, 14 जुलाई 2020

एमपी के बाद राजस्थान की सियासी संकट से कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को सबक सीखनी होगी।



राजस्थान में सियासी घमासान जारी है। आज कांग्रेस के आला कमान ने सचिन पायलट को उप-मुख्यमंत्री और राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष पद से बर्खास्त कर दिया है, जिसके बाद टोंक ज़िले के 59 ऑफ़िस बेयर्स ने इस्तीफ़े का ऐलान कर दिया है। आने वाले समय में कांग्रेस की मुश्किलें और नहीं बढ़ सकती, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। रणदीप सुरजेवाला ने जब सचिन को पद से बर्ख़ास्त किए जाने का ऐलान किया है, उसके बाद कांग्रेस के बहुत सारे नेता ट्वीटर पर अफ़सोस जता रहे हैं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद एक और तेज़ तर्रार नेता का नाता कांग्रेस पार्टी से टूट गया है। हाल कांग्रेस पार्टी के बहुच सारे नेता कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के ख़िलाफ़ बोल तो रहे हैं लेकिन संजय झा जितना खुल कर कोई क्यूँ नहीं बोल रहा है, यह समझ से परे है। आख़िर ऐसे नेताओं को किस बात का डर है, पार्टी से निकाल दिए जाने या पार्टी में किसी पद पर हैं तो उससे हटा दिए जाने का? नेहरू परिवार के ग़लत और वक़्त की मांग के अनुसार राजनीतिक समझ में फ़ेल होने से अगर जीते हुए राज्य से भी सत्ता हाथ से चली जाए तो फिर पार्टी में रहने का क्या मतलब है?पार्टी की बदहाली पर ट्वीट करने वाले सभी नेताओंं को एकजुट होना चाहिए और सोनिया और राहुल गांधी से बात करनी चाहिए। बातचीत करने से समस्या का समाधान होता है इसलिए बातचीत करनी चाहिए। हो सकता है कि सोनिया और राहुल गांधी समझ जाएं कि कांग्रेस एक प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी नहीं है जिसकी बागडोर हमेशा नेहरू परिवार के हाथों में रहेगी। सोचिए अगर सोशल मीडिया पर लिखने/ बोलने वाले नेता इस बात में कामयाबी हासिल कर लेंगे तो कैसा होगा। कांग्रेस की कायाकल्प ही हो जाएगी। लेकिन इसके लिए बात करनी होगी।

साल 2018 में राजस्थान और मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से ही फ़र्स्ट और सेकेण्ड जनरेशन के नेताओं के बीच सत्ता की बागडोर सम्भालने के लेकर घमासान जारी है। एमपी में आपने पहले ही देख लिया और अब राजस्थान में  घमासान जारी है। मुझे ठीक-ठीक याद है कि जब  इन दोनों विधानसभा के नतीजे आए थे इस वक़्त भी मुख्यमंत्री पद लेकर घमासान मचा हुआ था। सचिन तो आसानी से मान गये थे,लेकिन ज्योतिरादित्य ने नहीं माना था। ज्योतिरादित्य अब बीजेपी में हैं, सचिन अपनी राजनीति को कैसे आगे बढ़ाते हैं इसके लिए इन्तज़ार करना होगा। क्योकिं ज्योतिरादित्य की तरह सचिन ने कभी कुछ ऐसे संकेत नहीं दिए है कि अगर कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व उनकी नहीं सुनता है तो उनके लिए बीजेपी के द्वार खुले हुए हैं।

मुझे लगता है कि सोनिया और राहुल गांधी को अब यह समझ लेना चाहिए कि मां-बेटे के नेतृत्व वाली कांग्रेस को शायद देश की जनता और पार्टी के बहुत सारे नेता स्वीकार नहीं कर रहे है। वक़्त बदल चुका है देश की जनता नए  जनरेशन के युवा नेताओं के साथ नए तरीक़े से आगे बढ़ना चाहती है। युवा नेता कहे जाने वाले राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का क्या हाल हुआ है,किसी से छिपा नहीं है। पत्रकारों की तरह प्रियंका गांधी वाड्रा में इंदिरा गांधी जैसी करिश्माई शैली देखकर वक़्त बर्बाद करने से कोई फ़ाइदा नहीं है। प्रियंका गांधी कांग्रेस को जितना बुलन्द कर सकती थीं कर दी, अब इससे ज़्यादा कुछ नहीं कर सकती हैं। मतलब नेहरू परिवार से कांग्रेस पार्टी की बागडोर किसी अन्य व्यक्ति के हाथों में जाना चाहिए, जो बदलती राजनीति को समझता हो। एक युवा नेता के भरोसे पार्टी कितने दिनों तक चलेगी। वक़्त बदल गया है दूसरे युवाओं को भी मौक़ा मिलना चाहिए।

बुधवार, 17 जून 2020

भारत-चीन सीमा-विवाद: संयम बरतने का वक़्त है जनाब!

भारत-चीन सीमा विवाद में 20 जवानों की शहादत के बाद चीन के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर आक्रोश और अपशब्दों के बाढ़ आ गए हैं। क्या आम क्या ख़ास, सब ग़ुस्से में हैं। और हो भी क्यूँ ना, माँ भारती की रक्षा में हमारे 20 जवान वीरगति को प्राप्त हुए हैं। लेकिन ग़ुस्से का इज़हार करते वक़्त याद रखना चाहिए कि आवेश में आकर हम कुछ ऐसा तो नहीं कर रहे हैं, जिससे दुश्मन को फ़ाइदा हो जाए... हमारे किए को सबूत बनाकर वैश्विक स्तर पर भारत के ख़िलाफ़ चाइना उसका इस्तेमाल ना कर लें।

बहुत सारे पत्रकारों का भी पोस्ट पढ़ा, वे लोग भी भड़काने जैसे वाक्य लिखे हैं। कई तो कह रहे हैं कि तोप,बम-बारूद किस लिए रखे हो..चीन को सबक़ सिखाने के लिए उसका इस्तेमाल करना चाहिए। ऐसे बन्धुओं से अनुरोध है कि जब ग़ुस्सा आए तो एक गिलास ठंडा पानी पिएं और फिर सोचे कि वो जो हिंसक ख़याल उनके मन में आया है,उससे कोई फ़ाइदा होगा? युद्ध से ना तो विवाद समाप्त होता और ना ही शान्ति स्थापित होती है, फिर युद्ध क्यों करना? गांधी की धरती से पूरी दुनिया में अहिंसा का सन्देश फैला और उन्ही की धरती से मरने-मारने की बात होना,थोड़ा अजीब है। 

जैसा कि हम सब जानते हैं कि चाइना एक धोखेबाज़ देश है। छल उसके डीएनए में है। यह कई मौक़ों पर साबित हो चुका है और इस बार फ़िर उसने साबित कर दिया है। 6 जून को कमांडर लेवल की बातचीत में तय हो गया था कि दोनों देश के सैनिक अपनी-अपनी सीमा में लौट जाएंगे, लेकिन चीन ने ऐसा नहीं किया है। अभी कुछ देर पहले दोनों देश के विदेश मंत्रियों की बातचीत में भारत के विदेश मंत्री एस.जयशंकर ने चेताया है कि LAC पर चीन अगर अपनी आदत से बाज नहीं आता है तो द्विपक्षीय रिश्ते पर असर पड़ेगा। बातचीत में दोनों से कशीदगी कम करने पर सहमति बनी है। देखना होगा चाइना क्या करता है।

भारत सरकार सीमा-विवाद को लेकर कोई स्पष्ट जानकारी देती नहीं है, यह आदत बदलनी चाहिए। भारत..चाइना जैसा नहीं है कि कितने जवान मारे गए, उसकी जानकारी अपने देशवासियों को भी नहीं देता है। भारत एक लोकतांत्रिक देश है और सरकार की ज़िम्मेवारी होती है विपक्षी दलों और देशवासियों को जानकारी दे कि सीमा पर क्या हालात हैं। लोगों को भी सरकार से सवाल पूछना चाहिए, ज़िम्मेवारी तय करनी चाहिए कि सीमा पर क्या हालात है, वरना चाइनीज़ ऐप अन-इंस्टॉल और चाइनीज़ सामानों का बहिष्कार करते रह जाएंगे और चीन हम पर ज़ुल्म करता रहेगा।

बुधवार, 3 जून 2020

कोरोना काल में ‘क्या करें...क्या ना करें’


फ़िल्म रंगीला का एक गाना है क्या करें क्या ना करें कैसी मुश्किल है, कोई तो बता दे इसका हल ओ मेरे भाईमुझे लगता है कि कोरोना संकट में पुरे दुनिया की यही स्थिति है। हर देश की निगाहें उस संस्था पर जाके टिक जाती है जो कोरोना वायरस की वैक्सीन तैयार करने या उसके लक्षणों पर रिसर्च कर रहा है, लेकिन पुख़्ता तौर पर अभी भी कोई कोरोना संकट का हल नही बता पाया है। ऐसे में दुनियाभर में असंमजस की स्थिति बनी हुई है कि संकट से निजात पाने के लिए क्या किया जाए, कौन सा क़दम उठाया जाए जिससे कोरोना संक्रमण की श्रृखंला टूटे।

हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने लॉकडाउन 1.0 का ऐलान करते वक़्त भी इसी बात पर ज़ोर दिया था कि किसी भी तरह से हमें कोरोना के संक्रमण को तोड़ना है और इसके लिए सबसे ज़रूरी है सोशल डिस्टेंसिंग। तब देश में कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या 564 थी। इसके बाद लॉकडाउन 2.0, 3.0, 4.0 और अब हमारा देश अनलॉक 1.0 हो गया है। मतलब कुछ गतिविधियों को केन्द्र सरकार ने सशर्त खोल दिया है, कुछ गतिविधियों को आने वाले दिनों में धीरे-धीरे खोल दिया जाएगा और साथ ही राज्यों को अधिकार दे दिया है कि यदि राज्य सरकार चाहे तो कुछ गतिविधियों पर पाबन्दी आयत कर सकती है। चार लॉकडाउन के बाद वर्तमान में देश में कोरोना वायरस से मरीज़ों की संख्या एक लाख के पार है, एक लाख़ से ज़्यादा लोग स्वस्थ होकर घर लौट चुके हैं और पांच हज़ार से ज़्यादा लोगों की ज़्यादा लोगों की दुर्भाग्यपूर्ण मौत हो चुकी है। मतलब कुल मिलाकर क़रीब 135 करोड़ की आबादी वाले हमारे देश में कोरोना वायरस के कुल मरीज़ों की संख्या 2,07,615 है। अच्छी बात यह है कि यदि आज के आधार पर बात करें तो आज कोरोना से पूरे देश में 8,909 लोग वायरस से संक्रमित हुए हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ 4,776 लोग ठीक भी हुए हैं, मतलब जितने लोग संक्रमित हुए उससे आधे से ज़्यादा लोग ठीक हुए। लेकिन कोरोना वायरस से एक व्यक्ति का भी संक्रमित होना हमारे लिए चिन्ता की बात है। भारत में जब पहली बार लॉकडाउन का ऐलान किया था तब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत की तारीफ़ की थी और कहा था कि केन्द्र सरकार ने बहुत सही समय पर तालाबन्दी का फ़ैसला किया है। और उसके बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन  ने दुनिया को समय-समय पर चेताया कि यदि तालाबन्दी खोलने में किसी ने भी जल्दबाज़ी की तो नताइज बुरे होंगे। मतलब साफ़ है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन तब तक तालाबन्दी के पक्ष में है जबतक कोरोना वायरस के संक्रमण का ख़तरा समाप्त नहीं हो जाता है। अब सवाल है कि आख़िर कितने दिनों तक देश को लॉकडाउन रखा जा सकता है? शायद यह जवाबहीन सवाल है। वज्ह ये है कि कोरोना वायरस के संक्रमण के बारे में अबतक कोई पुख़्ता जानकारी नहीं मिल सकी है। रोज़ नये-नये लक्षण और नई-नई जानकारी सामने आ रही है। ऐसे में बहुत मुश्किल काम है यह ठीक-ठीक बता पाना कि कितने दिनों की तालाबन्दी के बाद कोरोना का संक्रमण ख़त्म हो जाएगा। शायद इसी वज्ह से दुनियाभर के देशों में तालाबन्दी को धीरे-धीरे हटाकर आर्थिक गतिविधियों को शुरू किया जा रहा है, ताकि भूखमरी की स्थिति ना उत्पन्न हो जाए। भारत जैसे विकासशील देशों के लिए अब जान भी और जहान भी  ज़रुरी है, इसलिए सरकार ने तालाबन्दी खोल दिया है। ऐसी स्थिति में एक नागरिक के रूप में हम सब की ज़िम्मेवारी बनती है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा सुझाए उन तमाम उपायों का पालन करें जब तक कोरोना से ठीक होने का इलाज नहीं मिल जाता है। घर से बाहर निकलते समय ग्लब्स और फ़ेस मास्क का इस्तेमाल करें, दो मीटर की दूरी बनाए रखें, कोशिश करें कि किसी भी भीड़ में शामिल ना हों चाहे कुछ ख़रीदना ही क्यूँ ना हो। ऑफ़िस/ काम से लौटने के बाद कोशिश करें कि बच्चों और परिवार के बुढ़े लोगों के सम्पर्क में बिना ख़ुद साफ़-सुथरा किए हुए ना आये। 

बुधवार, 27 मई 2020

पंडित जवाहरलाल नेहरू का समाजवाद पर नज़रिया-

आज पूरा देश आधुनिक भारत के प्रणेता कहे जाने वाले पहले प्रधानमंत्री को याद कर रहा है। इसी क्रम में समाजवाद पर नेहरू जी के नज़रिए को आपके साथ साझा कर रहा हूँ। मैं भारत के पहले वज़ीर-ए-आज़म को अलग-अलग माध्यमों से जानने की कोशिश करता हूँ। इसी क्रम में कुछ दिनों पहले मैंने लेखक हंसराज रहबर की लिखी किताब ' नेहरू बे-नक़ाब' पढ़ी। आइए जानते हैं कि पंडित जी का समाजवाद पर क्या नज़रिया था। पंडित जी समाजवाद के बारे में क्या सोचते थें। किताब में लिखा है- 

जवाहरलाल ने करंजिया के साथ अपनी भेंट में कहा था, " मैं समाजवाद में पिछले पचास वर्षों से विश्वास करता आ रहा हूँ और उसमें विश्वास करता तथा उसके लिए काम करता रहूँगा।" ( द माइंड ऑफ़ मिस्टर नेहरू)

लेकिन उनके इस विश्वास का दार्शनिक आधार क्या था? और उनके दिमाग़ में समाजवाद की धारणा क्या थी? 15 अगस्त 1958 को नेहरू जी ने अपने 'मूलभूत दृष्टिकोण' निबंध में लिखा था," लेकिन, समाजवाद क्या है? इसका कोई ठीक उत्तर देना कठिन है और समाजवाद की अनेक परिभाषाएं हैं। कुछ लोग शायद अस्पष्ट ढंग से सिर्फ़ यह सोचते हैं कि वह कोई अच्छी चीज़ है और उसका मक़सद समानता स्थापित करना है। पर यह सोच हमें किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचाती है।" जब पंडित नेहरू के पास जब कोई ठोस उत्तर नहीं और उनके दिमाग़ में समाजवाद की कोई निश्चित परिभाषा ही नहीं तो उनका विश्वास कैसे बना? और उन्होंने किस समाजवाद के लिए क्या काम किया? इस सिलसिले में स्पष्ट बात उन्होंने सिर्फ़ इतनी ही कही है कि, " समाजवाद बुनियादी तौर पर पूंजीवाद से भिन्न मार्ग है तथापि ख़याल है कि दोनों का बड़ा अन्तर ख़त्म होता जा रहा है क्योंकि समाजवाद के बहुत से विचार धीरे-धीरे पूंजीवादी व्यवस्था का अंग बनते जा रहे हैं।" मतलब समाजवाद के विचार अपना लेने से ख़ुद पूंजीवाद के समाजवाद में बदल जाने की सम्भावना है।

पंडित जवाहरलाल नेहरू समाजवाद पर मार्क्स के वैज्ञानिक परिभाषा को स्वीकार नहीं करते थें,क्योंकि उनके अनुसार कम्युनिज्म मनुष्य की आध्यात्मिक आवश्यकताओं को पूरा नहीं करता है। कम्युनिज्म में व्यक्ति को समाज पर क़ुर्बान किया जाता है। इससे भी ज़्यादा नेहरू को कम्युनिज्म से इस बात से ऐतराज़ था कि कम्युनिज्म का ताल्लुक़ हिंसा से है जो गांधी के शान्तिपूर्ण और अहिंसात्मक मार्ग से बिल्कुल विपरीत है।

(नोट- मैं नेहरूवियन नहीं हूँ। मैं नेहरू जी को जानने की कोशिश कर रहा हूँ। इसलिए मैं दावे के साथ नहीं कह रहा हूँ कि मैंने जो आपके साथ साझा किया है, वही अन्तिम सत्य है। इसलिए किसी पाठक के पास नेहरू जी का समाजवाद के प्रति इससे इतर भी नज़रिया था,तो कृपया साझा करें ताकि मैं भी जान सकूँ)

भारत की राज-व्यवस्था

- भारत के संविधान को बनने में 2 वर्ष 11 माह और 18 दिन लगे थे। -1600 ईस्वी में ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत में आगमन हुआ। - महारानी एलिजाबेथ प्र...